इल्‍हाम, इनायत, इत्‍तेफाक यानी इरफान- दुष्‍यंत

मुंबई-इरफान इत्तेफाक है। हसीन इत्तेफाक। एक कवि के बिम्ब की तरह, एक शायर के तखय्युल की तरह। जिसके होने की कामना, जिसके जैसे होने की कामना बहुत से लोग करते हैं पर वो एक आसमानी इल्‍हाम या इनायत की तरह ही आते हैं, किसी जिस्म में, किसी रिश्ते में, किसी पेशे में।

इरफान मेरे लिए भी ऐसे ही हैं, जिनसे कभी मिला नहीं, दूर से एक सितारे की तरह ही मेरी नज़रों ने छुआ, ज़्यादातर बड़े पर्दे पर, एक- दो बार कोई बीसेक फुट की दूरी से। मेरी चौंधियाई तो नहीं, पर मेरी नज़रों की रोशनी में इज़ाफ़ा ज़रूर किया। ऐसा इज़ाफ़ा कि उस रोशनी से जीवन के कई अंधेरों में एक चिराग का काम लेता हूँ, जो उसके अलावा शायद ही मुमकिन होता।

जिस शहर में पढ़ाई की, सहाफत से एक रिश्ता रहा, उस शहर जयपुर के कई लोग ऐसे थे जो वहां रहकर या बाहर जाकर अपने फ़न से, हुनर से बहुत बड़े हो गए थे, हसरत जयपुरी के शहर को अब साबरी बंधुओं, हुसैन बन्धुओं, विश्वमोहन भट्ट के शहर की तरह देखता था, उन नामों की फेहरिस्त में जुड़े एक चमकते नाम की तरह मेरे जेहन की ज़िन्दगी में दाखिल हुए थे इरफान। सितारे की तरह ही दाखिल हुए थे, तो सितारे को छूने की हसरत नहीं हुई, दूर से उसकी झिलमिल ही सुख और सुकून देती रही।

कलाओं की दुनिया में शब्दों की मार्फ़त मेरा रिश्ता बना तो उनसे दूर का करीबी रिश्ता बन गया। यह काबिले जिक्र है, कि उस शहर जयपुर की फ़ज़ाओं में सांस लेते हुए अगर ख़्वाब देखने शुरू किए तो उन ख़्वाबों के लिए हौसला इरफान से दूर की इस करीबी ने दिया, कि इस शहर का ऐसा लड़का अगर ये मकाम हासिल कर सकता है तो फिर क्या है जो इस दुनिया में मुमकिन नहीं है। छोटे शहर की परवरिश शायद ऐसा भाईपन उनसे जोड़ती थी कि जो अगर न होता तो जीवन में कोई बड़ी कमी सी रह जाती, जिसके बारे में सोचकर ही दिल दहल जाता है।

यानी इरफ़ान अभिनेता से ज़्यादा एक ख़याल रहे हैं मेरे लिए। उस ख़याल ने मुंबई लाने में खास भूमिका निभाई थी, उस ख़याल ने मुंबई में टिके रहने में मदद की है, उस ख़याल ने अपने भीतरी द्वंद्व को समझने, उससे डील करने में सहायता की है। उस ख़याल ने छोटे शहर के मुझ जैसे लड़के को बड़े शहर के पेचोखम में सर्वाइव करने की तासीर को शक्ल देने का काम किया है। शिद्दत से लगता था कि वे मुझे किसी मोड़ पर मिल जाएंगे, मुमकिन है कायनात कभी मौका देगी कि साथ काम भी करेंगे। काश!

जयपुर के रंगमंच से एक दोस्ताना राब्ता बना तो लगा कि कितने लोगों ने अपनी यात्रा की प्रेरणा इरफान से ली है, और अब भी ले रहे हैं। रंगकर्मी साबिर खान के किस्सों में इरफान को महसूस किया। उस महसूसियत ने उनके कद और मेयार को नज़र में लगातार बढ़ाया। इरफान पता नहीं, कुल कितने साल जयपुर में रहे होंगे पर मेरी राय है कि वे उस शहर की तासीर में शामिल हैं। किसी किरदार की यह शिनाख्‍त उस किरदार को यकीनन बड़ा बनाती है।
उनके किरदार और शख्सियत में जेहन में बस जाने वाली मुस्‍कान, दिल में हमेशा के लिए ठहर जाने वाली आंखें उनके चेहरे के दुनिया जीतने लायक चातुर्य के साथ मिलकर जिस आभा को रचते थे, वह नितांत मौलिक और निजी थी। उसे किसी वैज्ञानिक प्रयोग की तरह दोहराया नहीं जा सकता, उस पर ठहरा जा सकता है, निहारा जा सकता है, मुग्‍ध हुआ जा सकता है, एक सुकून को महसूस किया जा सकता है। उसमें किसी आध्‍यात्मिक अनुभूति की विरलता और विषयनिष्‍ठता है।
योगवासिष्‍ठ में एक सूक्ति वाक्‍य है कि जगत कहानी सुनाए जाने के बाद बचे उसके प्रभाव जैसा है। इरफान का प्रभाव भी वैसा ही है लगता है मुझे। हमारी समकालीन दुनिया जितनी और जैसी खूबसूरत बनी है, उसमें इरफान के होने की अहमियत बहुत बड़ी है। उनके होने का प्रभाव और अहसास मंदिर के विशाल घंटे की ध्‍वनि सा है जो देर तक गूंजती रहती है।
उनका यूँ जल्दी चले जाना, उनका यह संक्षिप्त सा जीवन अधूरे प्रेम की दास्तान सा लगता है। यह अल्‍पकालिकता क्रांति सरीखी भी है, क्रांतिकारी और कांतिकारी जीवन की यह विशिष्‍टता नई नहीं है। यह अल्‍पकालिकता भी एक जादू असर देती है। अभी तो लगता था कि वे संघर्ष से निकले हैं तो रंगमंच के लिए भी करेंगे, राजस्थान और खासकर जयपुर की कलाओं की दुनिया में एक सकारात्मक और ज़रूरी हस्तक्षेप करेंगे। हालांकि कहते हैं कि पेड़ विशाल होता जाता है तो धरती के भीतर उसकी जड़ें विस्‍तार पा जाती हैं, फैलती जाती हैं पर जड़ों का एक निजी मूलभूत केंद्रीयवृत भी रहता ही होगा, इरफान की जड़ों के उस मूलभूत केंद्रीयवृत में हलचल उनके किरदार और शख्सियत से अभी होनी शेष थी, मेरी यह उम्मीद अब एक स्‍थायी कसक की तरह रह गयी है।
(यह लेख वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज की इरफान पर हालिया आयी चर्चित किताब ‘ कुछ पन्ने कोरे रह गए.. इऱफान’ में शामिल है)

(लेखक चर्चित कवि- कथाकार और हिंदी सिनेमा में गीतकार- स्क्रिप्ट राइटर हैं)

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